Ramdhari singh dinkar famous poems – रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध कविताएं
राष्ट्रकवि को समर्पित एक लेख
रामधारी सिंह दिनकर, जिन्हें हिंदी साहित्य में “राष्ट्रकवि” की उपाधि से नवाजा गया, स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय चेतना के सबसे प्रखर कवियों में से एक हैं। उनकी कविताएं देशभक्ति, क्रांति, वीरता और सामाजिक चेतना से ओत-प्रोत होती थीं। दिनकर की कविताओं ने न केवल स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया, बल्कि आज भी युवाओं में जोश और आत्मबल भरती हैं।
इस लेख में हम जानेंगे रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध कविताएं, उनके लेखन की मुख्य विशेषताएं, और यह कि कैसे उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।
रामधारी सिंह दिनकर कौन थे?
रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के सिमरिया गांव में हुआ था। उन्होंने स्वशिक्षा के माध्यम से हिंदी, संस्कृत और अंग्रेज़ी का गहन अध्ययन किया। उनका लेखन मुख्यतः भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, राष्ट्रप्रेम, और सांस्कृतिक गौरव से प्रेरित था।
दिनकर को 1959 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया और उन्होंने भारतीय संसद में हिंदी के प्रचार-प्रसार में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कविता को आमजन की आवाज़ बना दिया, जिसमें संस्कृत की गूढ़ता और हिंदी की सरलता का सुंदर समन्वय था।
दिनकर की कविताओं की ताक़त
रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं सिर्फ शब्द नहीं, आंदोलन की चिंगारी थीं। उनके लेखन में जोश, गर्व, और क्रांति की भावना समाहित होती थी। उन्होंने अन्याय के विरुद्ध खड़े होने, आत्मबल जगाने और राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना को अपनी कविताओं में उकेरा।
रामधारी सिंह दिनकर की 5 प्रसिद्ध कविताएं
यहाँ प्रस्तुत हैं दिनकर जी की सबसे प्रसिद्ध और प्रेरणादायक कविताएं:
रश्मिरथी (रामधारी सिंह ‘दिनकर‘)
जय हो जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।
अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से,
कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्यकुसुम-सा खिला कर्ण, जग की आँखों से दूर।
नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।
समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।
जलद-पटल में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है?
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।
रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
बढ़ा भीड़-भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।
कहता हुआ, ‘तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?
अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।’
‘तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,
चाहे तो कुछ नयी कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।
आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।’
“परशुराम की प्रतीक्षा” (रामधारी सिंह ‘दिनकर‘)
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
हुंकार – रामधारी सिंह ‘दिनकर‘
परिचय / हुंकार / रामधारी सिंह “दिनकर“
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं
समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शून्य की झनकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं
जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसी का कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं
कली की पंखुरी पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं
जलन हूँ, दर्द हूँ, दिल की कसक हूँ,
किसी का हाय, खोया प्यार हूँ मैं।
गिरा हूँ भूमि पर नन्दन-विपिन से,
अमर-तरु का सुमन सुकुमार हूँ मैं।
मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं
मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं
न देखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धूलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं
सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं
दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा की
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं
बँधा तूफ़ान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं
संपूर्ण क्रांति – रामधारी सिंह ‘दिनकर‘
जहाँ भूख हो, वहाँ हो न कोई संतोष,
जहाँ अज्ञान फैले, वहाँ न चमके कोई प्रकाश,
जहाँ हो गरीबी, वहाँ न खिलें खुशहाली,
ऐसे अंधकार को मिटाने है संपूर्ण क्रांति।
न केवल सत्ता का परिवर्तन चाहिए,
ना केवल कानूनों का सुधार चाहिए,
पर मन-मिज़ाज बदले, सोच बदले, जीवन बदले,
तभी संभव है सच में संपूर्ण क्रांति।
जहाँ हर हाथ को मिले काम, हर दिल को मिले आस,
जहाँ हो शिक्षा का उजियारा, ज्ञान का प्रकाश,
जहाँ महिला हो सम्मानित, बालक हो स्वतंत्र,
ऐसे देश की हम करें संपूर्ण क्रांति।
झूठे वादों और छल से दूर हो जीवन,
ईमानदारी से जग में हो सबका सम्मान,
जहाँ अमीरी-गरीबी का हो अंत सच्चा,
ऐसे समाज में हो संपूर्ण क्रांति।
न हिंसा से हो, न क्रोध से हो,
बल्कि प्रेम और संयम से हो,
हर दिल में हो एकता का दीप जलता,
तभी आएगी सचमुच संपूर्ण क्रांति।
उठो, जागो, और चलो उस ओर,
जहाँ हर मन में हो इंसानियत का शौर,
ना रहे कोई पिछड़ा, ना रहे कोई अत्याचार,
यही है हमारे सपनों की संपूर्ण क्रांति का संसार।
भावार्थ:
यह कविता समाज में बदलाव की पूरी क्रांति की बात करती है, जो सिर्फ बाहरी बदलाव नहीं, बल्कि सोच, जीवनशैली, और इंसानियत के स्तर पर हो। यह समानता, शिक्षा, सम्मान, और प्रेम की क्रांति का आह्वान करती है।
उर्वशी – रामधारी सिंह ‘दिनकर‘
सूत्रधार
नीचे पृथ्वी पर वसंत की कुसुम-विभा छाई है,
ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का निर्मेघ गगन में।
खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं,
चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के;
या प्रशांत, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर
नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आए हों
नटी
इन द्वीपों के बीच चन्द्रमा मंद-मंद चलता है,
मंद-मंद चलती है नीचे वायु श्रांत मधुवन की;
मद-विह्वल कामना प्रेम की, मानो, अलसाई-सी
कुसुम-कुसुम पर विरद मंद मधु गति में घूम रही हो
सूत्रधार
सारी देह समेत निबिड़ आलिंगन में भरने को
गगन खोल कर बाँह विसुध वसुधा पर झुका हुआ है
नटी
सुख की सुगम्भीर बेला, मादकता की धारा में
समाधिस्थ संसार अचेतन बहता- सा लगता है।
सूत्रधार
स्वच्छ कौमुदी में प्रशांत जगती यों दमक रही है,
सत्य रूप तज कर जैसे हो समा गई दर्पण में।
शांति, शांति सब ओर, मंजु, मानो, चन्द्रिका-मुकुर में
प्रकृति देख अपनी शोभा अपने को भूल गई हो ।
नटी
शांति, शांति सब ओर, किंतु, यह क्वणन- क्वणन स्वर कैसा?
अतल व्योम-उर में ये कैसे नूपुर झनक रहे हैं?
उगी कौन सी विभा? इन्दु की किरणें लगी लजाने;
ज्योत्सना पर यह कौन अपर ज्योत्सना छाई जाती है?
कलकल करती हुई सलिल सी गाती, धूम मचाती
अम्बर से ये कौन कनक प्रतिमायें उतर रही है?
उड़ी आ रही छूट कुसुम वल्लियाँ कल्प कानन से?
या देवों की वीणा की रागिनियाँ भटक गई है?
उतर रही ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की
नई अर्चियों-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले में?
या वसंत के सपनों की तस्वीरें घूम रही है
तारों-भरे गगन में फूलों-भरी धरा के भ्रम से?
सूत्रधार
लो, पृथ्वी पर आ पहुँची ये सुषमायें अम्बर की
उतरे हों ज्यों गुच्छ गीत गाने वाले फूलों के।
पद-निक्षेपों में बल खाती है भंगिमा लहर की,
सजल कंठ से गीत, हँसी से फूल झरे जाते है।
तन पर भीगे हुए वसन है किरणों की जाली के,
पुश्परेण-भूशित सब के आनन यों दमक रहे है,
कुसुम बन गई हों जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर।
नटी
फूलों की सखियाँ है ये या विधु की प्रेयसियाँ है?
सूत्रधार
नहीं, चन्द्रिका नहीं, न तो कुसुमों की सहचरियाँ है,
ये जो शशधर के प्रकाश में फूलों पर उतरी है,
मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाएँ है
देवों की रण क्लांति मदिर नयनों से हरने वाली
स्वर्ग-लोक की अप्सरियाँ, कामना काम के मन की।
नटी
पर, सुरपुर को छोड आज ये भू पर क्यों आई है?
सूत्रधार
यों ही, किरणों के तारों पर चढी हुई, क्रीड़ा में,
इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती है।
या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का
क्योंकि मर्त्य तो अमर लोक को पूर्ण मान बैठा है,
पर, कहते है, स्वर्ग लोक भी सम्यक पूर्ण नहीं है।
पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की,
गगन रूप को बाँहो में भरने को अकुलाता है
गगन, भूमि, दोनों अभाव से पूरित है, दोनो के
अलग-अलग है प्रश्न और है अलग-अलग पीड़ायें।
हम चाहते तोड़ कर बन्धन उड़ना मुक्त पवन में,
कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते है।
एक स्वाद है त्रिदिव लोक में, एक स्वाद वसुधा पर,
कौन श्रेष्ठ है, कौन हीन, यह कहना बडा कठिन है,
जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है,
वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालों को।
किन्तु ,सुनें भी तो, ये परियाँ बातें क्या करती है?
परियों का समवेत गान
फूलों की नाव बहाओ री, यह रात रुपहली आई।
फूटी सुधा-सलिल की धारा
डूबा नभ का कूल किनारा
सजल चान्दनी की सुमन्द लहरों में तैर नहाओ री !
यह रात रुपहली आई।
मही सुप्त, निश्चेत गगन है,
आलिंगन में मौन मगन है।
ऐसे में नभ से अशंक अवनी पर आओ-आओ री!
यह रात रुपहली आई।
मुदित चाँद की अलकें चूमो,
तारों की गलियों में घूमो,
झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणों के तार बढाओ री !
यह रात रुपहली आई।।
सहजन्या
धुली चाँदनी में शोभा मिट्टी की भी जगती है,
कभी-कभी यह धरती भी कितनी सुन्दर लगती है!
जी करता है यही रहें, हम फूलों में बस जायें!
रम्भा
दूर-दूर तक फैल रही दूबों की हरियाली है,
बिछी हुई इस हरियाली पर शबनम की जाली है।
जी करता है, इन शीतल बूँदों में खूब नहायें।
मेनका
आज शाम से ही हम तो भीतर से हरी-हरी है,
लगता है आकंठ गीत के जल से भरी-भरी है।
जी करता है,फूलों को प्राणों का गीत सुनायें।
समवेत गान
हम गीतों के प्राण सघन,
छूम छनन छन, छूम छनन।
बजा व्योम वीणा के तार,
भरती हम नीली झंकार,
सिहर-सिहर उठता त्रिभुवन।
छूम छनन छन, छूम छनन।
सपनों की सुषमा रंगीन,
कलित कल्पना पर उड्डीन,
हम फिरती है भुवन-भुवन
छूम छनन छन, छूम छनन।
हम अभुक्त आनन्द-हिलोर,
भिगो भूमि-अम्बर के छोर,
बरसाती फिरती रस-कन।
छूम छनन छन, छूम छनन।।
निष्कर्ष
रामधारी सिंह दिनकर केवल कवि नहीं थे, वे एक युगद्रष्टा थे। उनकी कविताएं भारतीय मानस की गहराइयों को स्पर्श करती हैं। आज जब हमें नई प्रेरणा और आत्मबल की आवश्यकता है, तब दिनकर की पंक्तियाँ फिर से प्रासंगिक हो उठती हैं।
यदि आप कभी भी थकान या निराशा महसूस करें, तो दिनकर की कविताएं आपको फिर से खड़ा कर देंगी।
“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।”
रामधारी सिंह दिनकर